बच्चा

अब मुझे बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगा था कि हमारे एक बच्चा होना चाहिये। यानी एक अर्से से
पत्नी के अन्दर जो तड़प थी, वह पता नहीं कब धीरे-धीरे मेरे अन्दर भी उतर आई थी, जबकि शुरू से ही मैं इस
मामले में खासा लापरवाह था। इसलिए कोई पूछे कि बच्चे की चाहत किन हालातों के चलते मेरे अन्दर पैदा
हुई, तो साफ-साफ बता पाना मुश्किल होगा।
जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, शादी के डेढ़-दो साल के अन्दर ही गाँव की गलियों -चैबारों के अन्दर
मिलने वाले दोस्तों ने टोकना शुरू कर दिया था- ‘‘यार बताते जाओ, नया मेहमान कब तक आ रहा है ?’’
‘‘फिलहाल ऐसी कोई खबर नहीं है।’’ मैं चलते-चलते ऐसे फालतू-फण्ड के सवालों को तटस्थ भाव से
झटक देता था।
मगर जीजा जी इस सरसरी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए थे। उन्होंने सिगरेट का गहरा कश लेकर धुयें के
साथ अपनी जिज्ञासा उगल दी- ‘‘अमां, फिर तीन साल से तुम क्या कर रहे हो ?’’
करने को मेरे पास बहुत कुछ था, जीजा जी अच्छी तरह जानते थे कि चार साल हो चुके थे बाबू जी
को गुजरे, और तभी से रफ्फा-रफ्ता गृहस्थी का बोझ मेरे कमजोर कंधों पर आ टिका था। दो साल पहले छोटू
यानी रमन की पढ़ाई रुक जाने वाली थी। उस मौके पर मैने ही माँ को उत्साहित किया था – ‘‘अम्मा। आप
अपनी पेंशन से रमन का खर्चा संभालें, घर के लिए मैं कुछ करता हूँ’’ इसके कुछ दिनों के बाद मैं शहर के एक
प्रेस में हेल्परी करने लगा था। साल बीतते-बीतते मैने खुद को आफसेट का अच्छा मशीनमैन बना लिया था। मैं
अपने काम के सिलसिले में सुबह-शाम बीस किलोमीटर की साइकिलिंग करता और दोनों वक्त घर के पालतू
जानवरों की देखभाल भी। इसके बाद करने को मेरे पास ढेरों चिन्तायें थीं, जिसमें मैं रोज रात को पत्नी को भी
साझीदार बना लेता था। हम छोटी बहन शालिनी के हाथी पीले करने से लेकर शीघ्र ही बंटाईदारों से अपनी
जमीन निकालकर स्वयं किसानी करने की योजनायें बनाते। असल में बाबू जी का साया उठने के बाद से ही
हमारी स्थिति ‘‘डल्ल- पल्ल’’ चल रही थी, इस हालत में भविष्य के लिए बनायी जाने वाली योजनायें भले ही
हमारी समस्याओं को हल्का नहीं करती थीं, लेकिन इनसे जूझने का हौंसला जरूर देती थी। पत्नी को भी इस
बात का पता था, तभी वह मेरी योजनाओं से जुड़कर दूर तक मेरा साथ देती थी। वह भी मेरी तरह एकदम
सचेत रहती कि जाने-अनजाने हम कहीं ऐसा गच्चा न खा जायें, जिससे कल को पट्टीदारों को कहने को मिले-
‘‘बच्चू से संभाले गिरस्ती न संभली……………’’
जहाँ तक मैं समझता हूँ, तब उसे भी बच्चे-कच्चे की कोई फिकर न थी। मगर मां, शालिनी और मेरे
तमाम रिश्तेदार फिक्रमंद होने लगे थे। इन्हींे दिनों हमारे ममेरे भैया अनिल और भाभी आईं। ये करीब हफ्ते
भर यहाँ रहे और यह जानकर कि पिछले चार साल के बीच हम एक भी बच्चा न पैदा कर सके-उन्हें हैरानी
हुई। पूरे प्रवास के बीच उन्होंने मां को अच्छी तरह समझा दिया कि जो हुआ सो हुआ, पर अब देर ठीक नहीं।
इनकी तत्काल डाक्टरी जांच होनी चाहिये।
जाहिर है कि बच्चा पत्नी को पैदा करना था, इसलिए मां उसे अस्पताल ले गयी। तीन-चार बार उसे
जाना पड़ा था, हर बार कुछ दवाइयाँ खरीदी जाती। आखिरी बार तो मैं भी साथ गया। मेरे सामने ही डाक्टरनी
ने मां को बताया था- ‘‘माता जी, आपकी बहू में कोई कमी नहीं है। आप इसके आदमी को जांच के लिए
………………’’
माँ ने तुरन्त मेरी पेशी करा दी। मेरा जो होना था हुआ और अगले दिन रिपोर्ट मिली, जिसमें अंग्रेजी
के छपे कुछ शब्द और हाथ से लिखी लाख को छूती कुछ संख्यायें थीं। अन्त में एक भारी-भरकम शब्द घसीट
दिया गया था, जिसका व्यावहारिक मतलब समझाते हुए डाक्टर ने बताया था- ‘‘मैं बच्चा पैदा करने में पूरा
समर्थ था।’’
यह रिपोर्ट हमें बड़ी राहत देने वाली थी। दरअसल इस बीच हम पति-पत्नी लोगों के शक के दायरे मंे
आ चुके थे। गाँव की बड़ी’-बूढ़ियों से लेकर नई-नवेलियों तक यह खुसुर-फुसुर आम हो गयी थी कि फलाने की
बहू बांझपन का शिकार है। मैं भी नहीं बख्शा गया था, गाँव के तमाम हम उम्र लड़के और रिश्ते की भाभियाँ
अक्सर राह-बाट में मेरी मर्दानगी पर छींटाकसी कर देती।। प्रेस के सहकर्मियांे को भी मेरे अन्दर किसी गुप्त
रोग की भनक लग चुकी थीं। कुल मिलाकर हमारे चारो तरफ ऐसी टटोलती हुई सुबहा भरी नजरें थीं, जिनके
सामने न चाहते हुए भी हमारी गरदनें झुकने को मजबूर हो जाती थी। यह नामुराद माहौल डाक्टरी रिपोर्ट के
एक धक्के से धूल चाटता दिखने लगा था।
करीब डेढ़ साल मां ने इन्तजार किया, फिर भी बच्चे की कोई उम्मीद न दिखने पर
उनका मन विचलित होने लगा- ‘‘जब दोनों ठीक-ठाक हैं तब पता नहीं क्यों भगवान ऐसी विकट परीक्षा
…………’’
जबकि मैं इसे परीक्षा-वरीक्षा नहीं, बल्कि ऊपर वाले की मेहरबानी समझ रहा था। अभी हमारी हालत
ऐसी नहीं थी कि हम अपने बच्चे की सही ढंग से परवरिश कर सकते। हालांकि अब मंै शहर का सबसे काबिल
मशीनमैन बन चुका था। औरों से ज्यादा पगार थी मेरी। लेकिन छोटे-मोटे संस्थानों में काम करने की जो
दिक्कतें होती हैं-वह मेरे साथ भी लगी थीं। हर चार-छः महीने में वेतन या ओवरटाइम को लेकर मालिक से
मेरा कुछ न कुछ लफड़ा फँस जाता और मैं काम छोड़ देता था। दोबारा काम मिलने में दस-पन्द्रह दिन की
बैठक पड़ ही जाती। इस बैठकी से सारा हिसाब-किताब गड़बड़ा जाता। जहाँ काम-धन्धे का ऐसा गया गुजरा हाल
हो वहाँ बच्चे की क्या खाक देखभाल होगी ? मुझे नाक बहाते, आधे-अधूरे कपड़ों में पलते, गन्दे-सन्दे बच्चांें से
सख्त चिढ़ थी। मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि अभी हमारे बच्चा हो और मुझे चिढ़ाने वाली
स्थितियों में जीए
इधर मुझे कुछ नई आशायें जागी थी। हमारे शहर में सरकारी प्रेस की शाखा खुल रही थी। एक जान-
माने प्रकाशन समूह का अखबार भी शुरू होने वाला था। मैने दोनों जगह बात चला रखी थी। सफलता की पूरी
उम्मीद थी। जाहिर है, इसके बाद मेरी जिन्दगी मंे स्थिरता आ जाती और तब बच्चा…….बुझे मन से ही सही,
पर तब तक मेरी पत्नी मुझसे सहमत थी। दिक्कत थी मां के साथ, उनको लाख कोशिशों के बाद भी नहीं
समझा पाता था। गाँव की दो चार बड़ी-बूढ़ियाँ जब भी मेरे घर आतीं, मां गोतिनों के बीच अपना इकलौता राग
अलापने लगतीं-‘‘पता नहीं कब भगवान के यहां से बुलावा आ जाये पोते का मुंह देख लेती तो ……………..’’
इस राग माला के बीच उन्हें भूल जात कि आंगन या रसोई में कुछ कर-धर रही बहू पर इसका क्या
असर हो रहा होगा ? कम से कम शालिनी को तो इस मामले में शामिल होने से उन्हें रोकना ही चाहिये था।
मगर बेलगाम होने की वजह से वह बीच-बीच में माँ से भी दो हाथ आगे निकल जाती थी। गाँव में किसी के
यहाँ जचकी होती तो मां पीछे रह जाती, शालिनी का मुंह पहले लटक जाता, सोहर गाने जाने के नाम पर वह
पत्नी को निशाने पर लेते हुए ढेरों हीले-हवाले करती- ‘‘अम्मा ! मन नहीं कर रहा। किसके लिए जाऊँ, दूसरों के
यहाँ गाने ? अपने तो लगता है सोहर का संयोग……………………….’’
मैं देख रहा था, घर में जब-जब ऐसी कोई बात चलती- पत्नी पूरे परिवेश से कट
जाती थी। उसके अन्दर हताशा भरी सुस्ती उतर जाती। घरेलू काम-धन्धे में न वह तेजी
दिखा पाती और न सुघड़ता। ऐसे में माँ से झिड़कियां ऊपर से मिलती- ‘‘बहू ! क्या करती रहती हो बैठे-बैठे ?
तुम्हारे साथ की आई बहुयें दो-दो, तीन-तीन बच्चों की
देखभाल के बाद भी सारा काम निपटा डालती हैं, एक तुम हो …………….’’
घर का वातावरण बोझिल रहने लगा था। मैं दिन भर प्रिंटिंग मशीन चलाकर घर लौटता तो घुटन
होती। मां बच्चे के लिए सारी हाय-तौबा महज मेरे डूबते वंश को उबारने के लिए लगाये थीं। इसलिए उनके इस
मसले पर कड़ाई से रोकने-टोकने पर वही बात हो जाती-जिसके लिए चोरी करे वही कहे चोर। मेरी समझ में
नहीं आ रहा था कि क्या करता ? भले ही अभी मैं बच्चे का न होना गनीमत समझ रहा था मगर इसके लिए
मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं कर रखा था। देने वाले की मर्जी नहीं हो रही थी, तो मैं कहाँ से लाता बच्चा ?
जिसके आने की खुशी में शालिनी अपनी सखियों को बुलाकर सोहर गवा सकती। माँ उसे दुलारती, तेल-बुकवा
करके आंखें में कालज और माथे पर डिठौना लगाकर गोतिनों के बीच पंच बराबर की हैसियत से बैठ सकतीं।
यह न मेरे वश में था न पत्नी के। मां जो कर सकती थी, उसमें जुटी थी। गांव की चैहद्दी में जहाँ भी साधु-
सन्त, ओझा-सोखा, नजूमी, पंडा जैसे सयानों के आने की खबर लगती, मां सौ काम छोड़कर उधर का रुख करतीं।
वहां गंडा, ताबीज, भभूत जो कुछ मिलता वही लाकर पत्नी को देतीं। पत्नी पूरी श्रद्धा और कर्मकांड के साथ इन
टोटकों का इस्तेमाल करती। इन दिनों उसकी गेारी बाहों और गले में दर्जन भर से अधिक स्थाई जंतर झूलने
लगे थे। एक दिन मैने यूँ ही मजाक के लहजे में कह दिया था- ‘‘यार यह क्या दुनिया भर का चीकट लटका
रखा है ?’’
इस बात से उसकी आंखों में एक तिलमिलाहट के भाव आ गए थे और वह भड़क- सी उठी थी- ‘‘जाके
पांव न फटी बिवाई….. अपने ऊपर पड़ती तो जानते, दूसरे की पीड़ा कैसे समझोगे।’’
‘‘अरे गजब।’’-मैने उसी रो में कहा- ‘‘भई बताओ तो सही तुम्हारी कौन सी पीड़ा है, जिसे मैं नहीं जान
पाया ?’’
‘‘तुम्हे तो यह भी नहीं पता कि जब दूधो नहाओ, पूतो फलो का आशीर्वाद मिलता है तो मुझ पर क्या
गुजरती है?……. मन करता है धरती फट जाए और ……..’’ उसकी आवाज फंसने लगी थी और उसके गोलमटोल
चेहरे पर निराशा की गहरी परत उतर आई थी।
मुझे लगा कि पत्नी उपेक्षा और जड़ता के बीच मन की राहों पर बहुत दूर निकल आई थी-एकदम
अकेली और असुरक्षित। उसकी इस मंजिल के आस-पास मेरा कहीं अता-पता नहीं था। मैं सिर्फ घरेलू समस्याओं
का होकर रह गया था और उसकी तरफ ध्यान न दे पाया। इस हालत में वह अपने नारीत्व की अपूर्णता से पैदा
होने वाले अवसाद में डूबती चली गई थी। पहले मैं ही नहीं और भी सहारे थे। मुझे याद है, अभी दो साल पहले
जब वह समाजदारी के लिए आने वाली औरतों के पैर छूती तो एकाध औरत बोल उठती- ‘‘अब तो भगवान
सोहर-सोंठउरा का जोग लगाते।’’
‘‘बेचारों को खेलने-खाने दो।’’ कोई प्रगतिशील किस्म की बड़ी-बूढ़ी तत्काल राहत देती- ‘‘अभी तो सारी
उमर पड़ी है इस सबके लिए……….’’
मगर अब यह बात नहीं थी। अगली और बेदर्द टप्पा जड़ती- ‘‘देनी भगवान की। फलाने की बहू के पैर
फिर भारी हैं। अपनी-अपनी किस्मत है……………’’
फिर शुरू होता सांत्वनाओं का सिलसिला …….. यह जिस दयादृष्टि के साथ चलता वह संतोष कम,
हीनता अधिक पैदा करता ………. उस रोज मुझे अपराध बोध का अहसास हुआ था। मैने पत्नी से नजरें चुराते
हुए पक्का फैसला कर लिया था कि महज दिखाने के लिए ही सही, पर अब मैं पत्नी को नहीं लगने दूँगा कि मैं
उसकी इच्छाओं-आकांक्षओं से तनिक भी दूर हूँ…….. तभी हफ्ते भर बाद मां ने सकुचाते हुए एक गंडा मेरी
तरफ बढ़ाया- ‘‘बेटा ! चैरसिया बाबा का प्रसाद है, दाहिनी भुजा में ………..’’
मैने चट पीले कपड़े से बने उस गंडे को माथे से लगा लिया था। मेरे इस श्रद्धा प्रदर्शन से मां के
याचना भरे झुर्रियाये चेहरे पर संतोष आ टिका था। पत्नी भी बेहद खुश हुई थी। मुझे लगा था कि मैं एक
छलांग में पिछले अर्से में तमाम दूरियों को फलांगता पत्नी के बराबर आ खड़ा हुआ हूँ ……… हालांकि लम्बे
समय तक यह स्थिति कायम न रह सकी। क्योंकि महीने भर बाद ही मां ने दूसरी पेशकश की- ‘‘बेटा, अपने
फूफा जी को बुलवा लेते।’’
‘‘वे एकाध हफ्ते में खुद आ रहे हैं।’’
‘‘सच ! ’’ – मां को जैसे मुँहमांगी मुराद मिल गयी। खुशी से किलकते हुए बोली- ‘‘फिर बन गया काम।’’
‘‘कौन सा काम अम्मा ?’’ मैने हैरानी से पूछा।
‘‘तुम्हारे फूफा के यहाँ जो रामजी शास्त्री हैं न। मैं उन्हें बुलाकर संतानेष्ठि यज्ञ कराऊँगी।’’ अपनी मंशा
प्रकट करने के साथ मां ने कुछ नजीरें भी पेश की, कि फलां- फलां जगह के अमुक-अमुक लोग फायदा उठा चुके
हैं।
मैं रामजी की ठगी और पाखंड की ढेरों बातें सुन चुका था, लिहाजा मां के अंधविश्वास पर मुझे
झुंझलाहट हो आई थी। फिर भी मैने धीरज के साथ आहिस्ते से समझाना चाहा- ‘‘मगर अम्मा, वो तो बड़ा पैसा
खींचता है।’’
‘‘मैं लगाऊँगी रे पैसा। तू चिंता न कर।’’ मां की खुशी और उमंग भी मेरी झुंझलाहट को बढ़ने से नहीं
रोक पा रही थी।
मां के पैसों का मुझे पता था। बाबू जी की भविष्य निधि और बीमे का जो पैसा मिला था, वही शालिनी
की शादी में लगाने के लिए रख दिया गया था। शुरू में सोचा गया था कि बीच में इस रकम को हाथ नहीं
लगाया जायेगा। पर जरूरतों के सामने कौन टिक पाया है ऐसे फैसलों पर ? कभी रमन की पढ़ाई, तो कभी
बीमारी-अजारी के नाम पर सात-आठ साल के बीच में इसमें से कई बार थोड़ा-थोड़ा पैसा निकाला जा चुका
था……. अब अनाप-शनाप मामले में भी …….. मेरी झुंझलाहट बेकाबू होकर गुस्से में बदल गयी और मैं
बेसाख्ता चीख पड़ा- ‘‘अम्मा ! तुम्हें यह ऊल-जलूल ही सूझता रहेगा या शालिनी का भी कुछ ख्याल करोगी। मैं
रात-दिन एक कर रहा हॅँ और तुम्हें ……………’’
मैं बेहद उत्तेजित था। तेज आवाज ………. देह में कम्पन ……… मुंह में बार-बार फेन आ जाता था
….. मां सिर पर हाथ रखकर आवाक् रह गयी थीं। बर्तन मांजती पत्नी भी हाथ रोक सन्न सी बैठी थी। मैं इस
हालत में भी बोलता जा रहा था …… बातें तो सबकी जानी-बूझी थीं – मसलन शालिनी बीस पार करने वाली
थी। इधर की गवंई रीति के लिहाज से अब तक उसके हाथ पीले हो जाने चाहिये थे। नहीं हुए तो अब भी कुछ
नहीं बिगड़ा था, लेकिन और देर करने पर खटकने वाली बात हो जायेगी। गाँव की रीति तोड़ना उतना आसान
नहीं, खासकर कमजोर हैसियत वालों के लिए। सीधे-सीधे कोई कुछ नहीं कहेगा। बस परम्परा तोड़ने के खिलाफ
एक क्रूर गवंई प्रतिरोध शुरू हो जायेगा……. फिर गली चैपाल की चर्चा का वह भी एक मसाला बन जायेगी …
उसकी चाल-ढाल में किसी को मटक दिखने लगेगी, तो कोई उड़ा देगा कि फलाने लड़के के संग खीसें निकाले
गुपचुप बतिया रही थी। कइयों को उसके लक्षण खराब दिखने लगेंगे और अनजाने ही एक गलाजतों भरा गुबार
पीछे लग जायेगा……।
यही सब सोचकर कई महीने से मैं फूफा जी के पीछे पड़ा था कि वे अपनी तरफ के कुछ रिश्तों की
खोज-खबर दें, ताकि बात आगे बढ़ाई जा सके। इसी सिलसिले में वे तीन-चार लड़कों के विषय में जानकारी
लेकर आ रहे थे, ऐसा भी नहीं कि अम्मा गांव-देश की रीति-नीति से अनजान हों, मगर फिर भी उनकी चिन्ता
का विषय शालिनी का विवाह न था, बल्कि मेरी संतानहीनता थी। आज दिमाग में इकट्ठी हो गयी यही चिढ़
गुस्सा बनकर उबल पड़ी थी……..।
मैं बक-झक कर बाहर निकल गया था। उस रात हमारे यहाँ चूल्हा नहीं जला। अम्मा तो अम्मा, पत्नी
भी कई दिनों तक मुझे देखते ही मुंह फेर लेती। बड़ी कोशिशों के बाद मैं सबकी नाराजगी का राज जान पाया।
दरअसल रामजी शास्त्री के बारे मंे यहाँ के लोगों में एक भ्रम है कि जिस काम के लिए शास्त्री बुलाया जाने
वाला हो, अगर उसके बीच जाने-अनजाने व्यवधान पड़ गया या किसी ने नाइत्तफाकी जाहिर कर दी तो ब्रह्मा
लग जायें, काम नहीं होगा ……. नहीं होगा ……। यह विश्वास कितना गहरा और पक्का है, इसका अहसास मुझे
तब हुआ, जब ढेरों सफाई और कोशिशों के बाद न मां को मना सका और न पत्नी को पहले वाली स्वाभाविक
जीवन शैली के करीब ला पाया ……।
वक्त खिसकते-खिसकते दो साल और गुजर गया। इस दरम्यान पहले शालिनी, फिर रमन की शदियाँ
हुईं। रमन लुधियाने की एक साइकिल फैक्ट्री में छोटा-मोटा काम करने लगा था। मुझे अखबार वाले प्रेस में
सैकण्ड मशीनमैन की नौकरी मिल गई थी। बावजूद इन सबके दो-दो शदियों का खर्च झेलने के बाद से घर की
आर्थिक स्थिति एकदम खस्ता हो चुकी थी। मां की आँखों में मोतियाबिन्द उतर आया था। पत्नी बेहद चिड़चिड़ी
हो चुकी थी ……… और इन्हीं पत्नी दिनों उम्मीद से हो गयी थी।
पहले तो वह तीन महीने तक छिपाये रही। इसके बाद उसने मां को बताया। वे चुपचाप उसे अस्पताल
ले गयी। वहां डाक्टरनी ने पक्के तौर पर तसदीक कर दिया कि पेट में बच्चा ही है, फिर सारे गाँव में यह खबर
फैल गयी। अचानक ही समाजदारी के सिलसिले ने गाँव वालियों का अचम्भेपन का भाव लिए हमारे यहाँ आना
बढ़ गया। मां आंचल उठाकर हर छोटे-बड़े के पैर छूतीं। इलाइची वाले पान से गोतिनों की आवभगत करतीं। बड़ी
दीदी, रमन और शालिनी को खुशखबरी भेजी गयी। सबने बधाइयाँ भेजी, साथ ही ऐन मौके पर हाजिर होने की
सूचना भी। मां ने आनन-फानन में रमन की बहू को मायके से पत्नी की सेवा-टहल के लिए बुला लिया। मैं
साफ तौर पर महसूस कर रहा था, हमारा बदरंग कच्ची दीवारों वाला पुराना मकान जो सिर्फ बेमजा रिहायश भर
रह गया था, अनजाने ही आपसदारी और आत्मीयता की हलचलों से वास्तव में घर बन गया था।
इधर मैं पत्नी से खूब बातें करता था। हम अक्सर इस बात की चर्चा करते कि पिछले दस साल के
अन्दर एक बच्चे के लिए हमें क्या-क्या नहीं झेलना पड़ा ? हमारी बातों के ओर-छोर के बीच बच्चे के रंग-रूप,
पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह तक के मसले समाये रहते थे। इन सबके बीच मैं यह जानने का भी प्रयास
करता, आखिर कौन सी वह घड़ी थी जब पहली बर मेरे मन में बच्चे की चाहत जागी ? …… निश्चय ही यह
रामजी शास्त्री वाले प्रकरण के पहले की बात थी …….. सम्भवतः उस शाम की, जब मुकदमा हारकर लौटे पड़ोसी
मास्टर ने इशारों-इशरों में अपनी असफलता का कारण मुझे बताया था- ‘‘होनी तो तभी जग-जाहिर हो गई थी,
जब घर से निकलते ही निरबंसिया सामने पड़ गया था फिर ससुरचंद ने छींक भी ………’’
बल्कि इससे भी पहले …….. गरमियों की भरी दोपहरी में ईंट चुराकर ले जाते हवलदार के नाती पर
लानत भेजने के अंदाज में मेरे मुंह से निकल गया था- ‘‘बच्चे हों तो ऐसे लायक……….’’
‘‘नहीं तो होवै न करैं।’’ बगल से गुजरती आधे दर्जन बच्चों वाली कहारिन ने तुक्का जड़ा था।
उसका कहने का अन्दाज कुछ ऐसा कटाक्ष भरा था कि मुझे पहली दफे औलाद का अभाव खला था।
खैर जो भी रहा हो, अब हमारे यहाँ पत्थर पर दूबे उगने की स्थिति में बच्चा आने वाला था और हमें इसके
स्वागत की तैयारी करनी थी। पत्नी पहले से सचेत थी। उसने सलाइयों से पुरानी ऊन से मोजे, कनटोप, स्वेटर
वगैरह बुनना आरम्भ कर दिया था। इस मामले में मैं भी पत्नी से पीछे नहीं रहना चाहता था, लिहाजा मैं अपने
ढंग से हाथ-पांव मारने लगा। मैने सोचा, मेरी पत्नी सुन्दर है। मैं खुद ठीक-ठाक हूँ। इस हिसाब से मेरा बच्चा
यकीनन सुन्दर होगा। खूबसूरत बच्चों को नजर बहुत लगती है। निकट भविष्य में पेश आने वाली इस समस्या
से निपटने के लिए मैने चुपचाप एक गुनिया से नजर उतारना सीख लिया था। इन दिनों मैने फुटपाथ से
‘‘बालरोग-लक्षण एवं चिकित्सा’’ नामक एक किताब भी खरीदी थी और उसे रोज रात में पढ़ता था। नवजात
शिशुओं के रखरखाव सम्बन्धी अखबारों में छपने वाले लेखों में भी इधर मेरी अच्छी खासी रुचि पैदा हो गयी
थी।
इन सबके बीच मुझे कई रोचक तथ्यों की जानकारी हो रही थी। जैसे एक लेख पढ़कर मैने जाना कि
जन्म के समय बच्चा नौ माह का होता है। जन्म से पूर्व वह माँ की खुराक से पोषण और माहौल से संस्कार
ग्रहण करता है …. मुझे जो भी जानकारी मिलती, उसे मैं अपनी पारिवारिक स्थितियों से जोड़कर जाँचता
परखता….. मुझे पता था कि कई मामले में मेरे यहाँ का माहौल बहुत ही अच्छा था-अपनत्व की गर्माहट से
भरा-पुरा।
माँ और रमन बहू पत्नी को हाथों हाथ लिये रहती थीं। वह घर के हल्के फुल्के काम स्वेच्छा से किया
करती थी। किन्तु भारी काम…. यहाँ कि नहाने के लिए एक बाल्टी पानी भी उठाने को होती तो माँ तुरन्त टोक
देती- ना बहू ना …. और रमन बहू तुरन्त बाल्टी ले जाकर गुसलखाने में रख देती। पत्नी के पास फुरसत का
काफी समय होता था। अगर इसका उपयोग वह साहित्यिक या फिर धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने में करती तो
सोने में सोहागे वाली बात होती। बाबूजी के जमाने की दो आलमारी भर किताबें घर में मौजूद थीं। मगर इस
मामले में उसकी रुचि ही नहीं थी। कहने-समझाने का भी उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। लिहाजा इसका
दूसरा विकल्प निकालना पड़ा। मैने अपने मित्र का पुराना मोबाइल खरीदा और उसमें सुमधुर देवी गीत, भजन,
कीर्तन, प्रवचन, लोकगीत, हास्य कविता और चुटकुलों का चिप डलवा दिया। मोबाइल पाकर वह बड़ी प्रसन्न हुई।
अब इसके जरिए खाली समय में घर के अन्दर गीत-संगीत और धर्म की धारा प्रवाहमान रहने लगी।
अब मैं पत्नी की पल-पल की खबर भी ले सकता था। यह जरूरी भी था, क्योंकि गर्भकाल बड़ा
संवेदनशील होता है। गर्भवती महिला के साथ कभी भी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या आ सकती है। हमारे इलाके
में स्वास्थ्य सेवायें बड़ी लचर थी। एक सरकारी मिडवाइफ सेन्टर के अलावा बाकी सात-आठ किलोमीटर के
अन्दर कुछेक झोला डाक्टर थे, जबकि गर्भवती के स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कत के मामले में कुशल चिकित्सक की
सेवायें लेनी चाहिये। ऐसे मामले में गए-गुजरे झोला डाक्टरों को तो दूर से ही सलाम कर लेना बेहतर होता है।
मगर… काफी मगजमारी के बाद मैने इसका भी रास्ता निकाल लिया था। भगवान न करे कोई परेशानी आये।
किन्तु आ ही गयी तो पत्रकारों के रुतबे का फायदा लेने की जुगत भिड़ाना मैने शुरू कर दिया था।
मुझे पता था, पत्रकार के एक फोन पर एम्बुलेन्स दरवाजे पर पहुँच जाएगी और सरकारी अस्पताल के
अच्छे से अच्छे डाक्टर की सेवायें हासिल होने में देर न लगेगी। इसलिए मैने पत्रकारों की निगाह में आने का
उपक्रम शुरू कर रखा था। मैं अपने अखबार के सम्पादकों-स्टाफ रिपोर्टरों के सामने जानबूझकर पड़ने की
कोशिश करता और उनसे अदब के साथ झुककर अभिवादन करता था। उनके लैपटाप का बैग वगैरह चेम्बर तक
पहुँचा देता। दो-ढाई महीने में इसका सकारात्मक परिणाम दिखने लगा था। पहले जो सम्पादक या रिपोर्टर मेरे
प्रणाम पर सिर हिलाने या अनमने ढंग से हाथ उठाने तक सीमित थे, वहीं अब विधिवत अपनत्व भरी मुस्कान
के साथ ‘नमस्कार’ या आशीर्वाद की मुद्रा में ‘खुश रहो’ कहने लगे थे। कुछेक पत्रकार अभिवादन का जवाब देने
के बाद ‘कैसे हैं’, ‘सब ठीक है न’, ‘मेरे लायक कुछ समझना तो ….’ जैसे जुमले भी जोड़ देते थे। कुल मिलाकर
इस मोर्चे पर भी मेरा प्रयास सही दिशा में चल निकला था।
हमने जोड़-गांठकर जान लिया था कि बच्चा नये साल यानी जनवरी में जन्म लेगा। इस मौके पर मैं
पत्नी को एक तोहफा देना चाहता था, जिसे पाकर वह खुशी से झूम उठे। मेरी समझ से सोने की एक हल्की-
फुल्की अंगूठी इस मामले में काफी थी। मैने अंगूठी के लिए पैसा जोड़ने का प्रयास आरम्भ किया। पहले मैं एक,
बहुत हुआ तो दो घंटे ओवरटाइम करता था, लेकिन अब मैं नियमित चार घंटे ओवरटाइम करने लगा। भरसक
चाय-पानी के खर्च में भी कोताही करता। पान खाने का शौक छोड़ दिया। तलब न मानी तो सुर्ती का विकल्प ले
लिया। कुल मिलाकर सारी कोशिशों का अच्छा नतीजा निकला। बच्चा जन्मने का समय आते-आते मेरे पास
औसत दर्जे की अंगूठी खरीदने लायक पैसा जुट गया।
अचानक ही एक सुबह जचगी का दिन आ गया। गांव के हैल्थ सेन्टर की मिडवाइफ ने सब संभाल
लिया। उसने कुछ दवाइयां और इंजेक्शन बताये थे, जो मैने तत्काल चैराहे के मेडिकल स्टोर से ला दिये थे।
सबसे खुशी की बात यह थी कि हमारे बेटा पैदा हुआ था। रिवाज के मुताबिक मैने मिडवाइफ को मिठाई के
डिब्बे के साथ सौ रूपये नेग के दिये तो वह नखरे करने लगी। मुझे स्पष्ट करना पड़ा – ‘‘सिस्टर जी, यही सारे
गाँव में चल रहा है। रही साड़ी तो अम्मा पेंशन पर ला देंगी।’’
‘‘वो तो आयेगी ही। मगर नेग कम है।’’
‘‘कम कैसे है ? सभी इतना ही ……..’’
‘‘सब को छोड़ो भइया। वे तो हर दूसरे-तीसरे साल देते हैं, पर आप ……. यही समझकर दे डालें।’’
मिडवाइफ ने वजनदार तर्क रखा।
बाद में ढाई सौ रूपये और दो अच्छी साड़ियों पर बात टूटी। इसी बिना पर नाऊ, कहार, चुड़ीहार, धोबी,
चमार, गांवदार, गोबरकढ़िन, नटिन-बहचड़िन और पंडित जी ने तगड़ी वसूली की। बिरादरी की तरफ से प्रीतिभोज
की मांग हुई, जबकि मां बरही के मौके पर सिर्फ सोठौंरा बांटकर निपटारा करने के फिराक में थीं, इसलिए वे
झिझकीं मगर तभी रमन का मनीआर्डर आ गया। फैक्टरी की अन्दरूनी जरूरतों कह वहज से उसे छुट्टी नहीं
मिल पायी थी। पैसा हाथ लगते ही मां का हौसला बढ़ गया। वे प्रीतिभोज करके पंचों को अपने दरवज्जे हाथ
धोवाने के लिए राजी हो गयी। बस शक्कर का जिम्मा मेरे जिम्मे आया।
बच्चे की छट्ठी से पहले शालिनी और बुआ जी आ गई थीं। दीदी के यहाँ भाइयों में बँटवारा रहा था,
लिहाजा वे नहीं आ पायीं। छठी के मौके पर शालिनी ने बच्चे को काजल लगाया। पत्नी ने बिना माँगे नेग में
कर्णफूल दे दिया। इसको लेकर बड़ी-बूढ़ियों ने उसकी दरियादिली की खूब तारीफ की। मेरे मित्र भी बहती गंगा
में हाथ धोने में पीछे नहीं रहना चाहते थे। उनकी तरफ से कहा गया- ‘‘ऐसे खास मौके पर ठर्रे की गंध नहीं,
मिलिटरी वाली गमक होनी चाहिये।’’
काफी हीला-हवाला के बाद भी मुझे दो बोतल रम के लिए अपनी गांठ ढीली करनी पड़ी। कुल मिलाकर
बरही तक मेरी बचत का एक बड़ा हिस्सा उड़ चुका था। फिर भी अगले रोज प्रेस का काम खत्म करके मैं
बाजार गया। अंगूठी खरीद पाने का अब सवाल नहीं रह गया था। इसलिए मैं कोई दूसरी चीज लेना चाहता था।
दो दुकानों पर जांचने -परखने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जेब में बचे पैसों से चाहूँ तो बच्चे के लिए
रबर वाली दो गिद्दियाँ, एक बेबी कम्बल और पालना खरीद सकता हूँ या फिर एक ठीक-ठाक ऊनी शाल पत्नी
के लिए। तोहफा मुझे पत्नी को देना था, क्योंकि उसके पास शाल नहीं थी। इधर जैसा कभी-कोताही भरा जीवन
हम जी रहे थे, उसमें छोटी-छोटी उपलब्धियाँ भी खुशियों का खजाना दे जाती थी। ऐसी हालत में शाल पाकर
पत्नी का झूम उठना तय था। लिहाजा मैने साल खरीद ली।
रात में मैने बंडल पत्नी के सामने रख दिया- ‘‘देखो तो सही, तुम्हारे लिए क्या ले आया।’’
जिज्ञासा से पत्नी ने बंडल खोल डाला। मगर शाल देखकर मेरी उम्मीद के विपरीत उस पर खास असर
न पड़ा। हाँ यह सवाल उसने जरूर किया- ‘‘इतने पैसों में बच्चे की
परवरिश लायक कोई चीज मिल सकती थी क्या ?’’
‘‘मिल तो सकती थी, लेकिन तुम्हारे पास नहीं थी इसी से ………..’’
बच्चा कुनमुना कर रोने लगा था। वह उसे अपना दूध पिलाने लगी और बोली- ‘‘जिसे भगवान ने
इतना सुन्दर बच्चा दिया हो, उसे और क्या चाहिये ?’’
मैं लालटेन के उजाले में साफ देख रहा था, बिल्कुल छोटे से दूधिया रंग के शिशु पर निगाहें टिकाये
पत्नी के चेहरे पर ऐसी चमक थी, जिसके सामने दुनिया भर की दौलत फीकी लगती। निश्चय ही मैं अपने
तोहफे सहित पत्नी की खुशी के सामने बौना सा हो गया था, लेकिन ताज्जुब है कि इस बौनेपन के अहसास में
मुझे ढेरों सुख झिलमिलाता दिख रहा था।